बीई, एमबीए और एमएससी पढ़े युवा चपरासी के कतार में!

15 साल के छत्तीसगढ़ का आईना-

कुछ ही वर्ष पहले छत्तीसगढ़ को अन्य राज्यों की तुलना में पिछड़े और कम पढ़े लिखों का राज्य माना जाता रहा है। कुछ हद तक सही भी है, अविभाजित मध्यप्रदेश में यह अंचल पिछड़ा ही तो था। शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन और अन्य मूलभुत सुविधाएं नाम मात्र की थी। कहने को तो रत्नगर्भा किन्तु दाने-दाने को मोहताज। हीरा, कोयला, बाक्साइड और लौह अयस्कों के चादर पर सोने वाले लोगों को दो वक्त की रोजी-रोटी के लिए ठेकेदारों की गुलामी झेलनी पड़ती थी। जैसे राज-रजवाड़े वाले छोटे रियासतों का धन बटोर कर राजधानी ले जाते थे वैसा ही वाक्या छत्तीसगढ़ अंचल के साथ होता था। छत्तीसगढ़ राज्य अलग होने के बाद जो विकास का तस्वीर नजर आया उससे तो यही बातें साबित हो रहा है कि छत्तीसगढ़ियों के साथ भाई-भतिजावाद होता रहा। 
राज्य बनाये जाने के बाद भी यहां के लोगों के साथ भेदभाव का बर्ताव कुछ कम नहीं हुआ। जो लाभ यहां के मूल निवासी लोगों को मिलना था वह आज तक नहीं मिल पाया। बाहरी व्यक्तियों को और अधिक बढ़ावा दिया जा रहा है। किसानों की जमीनों पर बड़े-बड़े कारखाने और उद्योग लगाये गये। उन उद्योगपतियों को राज्य सरकार खुद आमंत्रण देकर बुलाते और उद्योग लगाने के लिये तमाम सुविधाएं मुहय्या कराते। सरकार लोगों को झूठा आश्वासन देकर गुमराह करता रहा कि उद्योग लगने के बाद यहां के लोगों को रोजगार मिलेगा। पढ़े-लिखे स्थानीय नौजवानों को उद्योगों में प्राथमिक्ता मिलेगा। आसपास के ग्रामीण वहां मजदूरी करेंगे। विकास के नये-नये रास्ते खुलेंगे, इस तरह के तमाम वादे सरकार और नये उद्यमियों की ओर किये गये थे। किन्तु ऐसा हुआ नहीं। उनके वादे और इरादों की सच्चाई स्थानीय लोगों की दशा देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है। जिन उद्योगों ने स्थानीय युवाओं को काम पर रखे, वे उनसे कुली-कबाड़ी काम करा रहे है। पढ़े-लिखे युवा आज भी नौकरी के लिये कभी सरकार तो कभी उद्यमियों के दरवाजों पर एड़ीयां रगड़ रहे हैं। 
अब पंद्रह वर्ष के पृथक छत्तीसगढ़ और मूल निवासियों की दशा को देखे तो ज्यादा कुछ विकास नहीं हुआ। हां विकास की आंधी जरूर चली जिसमें राजनेताओं के ओहदे और रूतबें में विकास हुआ है। गली-मोहल्ले के टेटपूंजीयों को लालबत्ती जो मिल गई। राजनेताओं और उद्यमियों के साठगाठ का टीका-टिप्पणी कोरी नहीं अपितु कटुसत्य है। छत्तीसगढ़ में लगे नये-पुराने उद्योगों में स्थानीय युवाओं को मिली नौकरी और राज्य के बाहर से आये उनके कर्मचारियों की संख्या का आंकड़ा सच बयां कर रहा है कि उद्योगों ने छत्तीसगढ़ के कितने युवाओं को नौकरी पर रखा। स्थानीय लोगों की जमीने छल से हड़प लिया गया। न तो उचित मुआवजा मिला और नहीं सम्मान जनक रोजगार। बेचारे बासिंदे तो खेत और गांव के साथ-साथ रोजगार से भी गये। उनके पास अब जीवनयापन के लिए पलायन ही एक मात्र रास्ता है और सरकार के जबरदस्ती के विस्थापन को भी पलायन ही माना जाए। 
सरकार द्वारा दिखाये हसीन स्वप्न के कारण गांव के युवा कर्ज लेकर उच्च शिक्षा ग्रहण किये। किसी ने खेत बेचा तो किसी ने घर, इस आस में कि इंजीनियर और डॉक्टर बनने के बाद अपनी माटी और खेती को वापस पा सके। पढ़ाई पूरी करने के बाद उनकी मंशा धरासाई हो गई। सरकार लोगों को सिर्फ कुली-कबाड़ी का काम बाट रहा है और बड़े ओहदे के लिए बाहर से आदमी बुलाया जा रहा है। 
अगर ऐसा नहीं है तो फिर वर्तमान में व्यापम द्वारा जो भी परीक्षाएं ली जा रही है उसमें पद से कई गुणा उम्मीद्ववार परीक्षा में क्योंं बैठ रहे है। क्यों दस पद के लिये दस लाख आवेदन आ रहे है। आवेदनों से ही सरकारी तंत्र अपना वारा-न्यारा कर रहा है। बेरोजगारों से शासन कमाई इस तर्ज पर कर रहा है कि जब बेवकूफ जिंदा है तब तक अकलमंद भूखा नहीं मरेगा। शिक्षा में पिछड़े होने का ताना देने वाले अब इस बात का मजाक बना रहे है कि चपरासी के पद के लिए इंजीनियर, एमबीए और एमएससी पढ़े युवा सामने आ रहे है। 
गौरतलब हो कि इससे पहले ही सरकार द्वारा जब चपरासी के पैतीस पद के लिये आवेदन मंगाया गया था तब भी सत्तर हजार आवेदन आये थे। और उनमें से अधिकांश आवेदक उच्च शिक्षा वाले थे। छत्तीसगढ़ में इतने पढ़-लिखे बेरोजगारों के होते सरकार का आउटसोर्सिंग समझ से परे है। 0

- जयंत साहू
डूण्डा वार्ड-52, रायपुर
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