कहां गए चिटफंड कारोबारी?



छत्तीसगढ़ को रत्नगर्भा का संज्ञा देकर कारोबारियों ने तरह-तरह से लुटे है। किसी ने किसानों की पुस्तैनी जमीन हड़प लिये, तो कोई उनकी जमा पूंजी। मेहनत कस मजदूर अपना पेटकर कुछ पैसे आड़े वक्त के लिये बचाकर रखते थे। उन्हे क्या पता था कि जो पैसा वो बुरा वक्त के लिये बचत करके घर चला रहा है वो समय ही बुरा चल है। ज्यादा ब्याज के लोभ ने उन्होने अपनी जिंदगी भर की कमाई गवां दिये। लुटने वाला शक्स भी कोई पराया नहीं। अपने रिस्तेदार ही चिटफंड कंपनी का अभिकर्ता बनकर आया और रकम दोगुण कराने की बात करके कंपनी में जमा करा कर कागज का टूकड़ा थमा गया। अब पैसे मिलने का वक्त आया तो न अभिकर्ता आए न उनकी कंपनी से पैसा। दफ्तर में ताला और कंपनी मालिक फरार। अब अभिकर्ताओं के गले में पड़ रहा है फंदा। पुलिस भी उन पर शिकंजा कसते नजर आ रहे है क्योकि लोग न तो कंपनी को जानते थे न मालिक को। 

शुरूआती दौर में इन कंपनियों ने बैंकों की भांति स्कीम बताकर लोगों को लाभ पहुंचाने का भरोसा दिलाकर अभिकर्ता के माध्यम से ये बताथे कि बैंक से ज्यादा ब्याज हमारे यहां मिलेगा। पांच साल में दोगुण होगा रकम। लोग उनकी बातों में आकर बैंकों में जमा धन निकाल कर चिटफंड कंपनी में जमा करा दिये। लोगों के जेब से पैसा निकलवाने के लिये उनका मुख्य औजार का काम करते थे अभिकर्तागण। पढ़े-लिखे बेरोजगार युवा अच्छी कमीशन और अफसरी का काम समझकर कंपनी के साथ जुड़ते थे। अब दफ्तर और कंपनी मालिक के भाग जाने के बाद अभिकर्ता निवेशकों से मुंह छिपाने को मजबूर हो गये है। आखिर उनका पैसा कहां से चुकाये। पैसा कंपनी मालिक डकार गये, एक बॉड का पेपर थमा कर जो कि अब महज एक कागज का टुकड़ा बन गया है। 
अभिकर्ताओं ने रकम डूबाने की बात सपने में भी नहीं सोचा होगा क्योकि पैसा भी किसी दूसरे का नहीं बल्कि उनके अपने रिस्तेदारों के फसे है। कंपनी प्लान के अनुसार अभिकर्ताओं को तय समय सीमा में काम करने का लक्ष्य मिलता था। जिसे पूरा करने में वे दिन-रात एक कर देथे थे। अधिकांश कार्यकर्ता ऐसे भी रहे है जो अपनी खुद की जमीन बेंच कर कंपनी में निवेश करते रहे। अभिकर्ता अपने रिस्तेदारों को स्वयं का पैसा लगे होने का हवाला देकर कंपनी के प्रति आश्वस्त कराते थे। बेचारे निवेशक कंपनी मालिक से तो वाकिफ नहीं थे, वे अभिकर्ता को जानकर पैसा लगाते थे। 
चिटफंड का कारोबार बंद होने के बाद जितने भी कंपनी के निवेशक है सभी अभिकर्ताओं के घर दस्तक दे रहे है। कहां से और कैसे उनकी रकम वापसी होगी इसी बात को लेकर अभिकर्ताओं में भी विचार विमर्श का दौर चल रहा है। अभिकर्ताओं की संख्या सैकड़ों में नहीं लाखों है। लाखों अभिकर्ताओं पर पुलिस और प्रशासन दबाव बना रही है कि तुम लोग भी उतने ही दोषी हो जितने की कंपनी मालिक। पुलिस प्रशासन लाखों लोगों के उपर कार्रवाई करने का धौस दे रहा है। लेकिन उनके दफ्तरों का फीता काटने वाले नेताओं पर कुछ भी कार्यवाही नहीं किया जा रहा है। सालों तक बिना किसी बाधा के जिनके शह में चलता रहा चिटफंड का कारोबार उन कोई कार्रवाई क्यों नहीं किया जा रहा है। ये तो सभी जानते है कि चिटफंड का कारोबार अकस्मात ही खुला और बंद नहीं हुआ है। कंपनियां पंजीकृत थी, आलीशान दफ्तर हुआ करता था। यहा तक कि रसूखदार लोगों द्वारा कंपनी का उद्घाटन कराया जाता था। 

ऐसे में अब सिर्फ अभिकर्ताओं के उपर दोष मड़ने वाले प्रशासन को भी अपना कमजोर कड़ी तलाश कर उन पर कार्रवाई करना चाहिए। कंपनी पंजीकृत होने के बाद भी उनकी सतत निगरानी क्यों नहीं की गई। क्यो सालों तक लुटते रहे लोग जबकि प्रत्येक क्षेत्र में बुद्धिमान और जिम्मेदार अफसर तैनात है। कोई भी कंपनी एक दो दिन में ही तो करोड़ों निवेश नहीं कराये होंगे। सालों से चलता रहा पुलिस और प्रशासन के नजरों के सामने। असल बात कहा जाये तो पैसा गरीबों का है इसलिये किसी ने भी स्वयं संज्ञान में लेकर कंपनी की जांच पड़तान करने की कोशिश नहीं की। चलता है तो चलने दो, मरता है तो मरने दो, लुटते है तो लुटने दो। अज्ञानता और भोलेपन का सजा पाने गरीब-मजदूरों को! शायद यही सोच लेकर प्रशासन ले अब, लोगों के लुट जाने के बाद सभी चिटफंड के दफ्तरों को सील कर मालिकों के उपर कार्यवाही कर रहे है। और उपर से बलि का बकरा बन रहे है कंपनी में काम करने वाले बेचारे अभिकर्ता। 
- जंयत साहू, रायपुर 
JAYANT SAHU
ward-52,Dunda Raipur Chhattisgarh
jayantsahu9@gmail.com

बेबाक बोल से बवाल


देश में संचार क्रांति का आलम इस कदर छाया हुआ है कि प्रत्येक व्यक्ति अथवा समुह आपसी बयानों को भी स्वतंत्र रूप से सोशल मीडिया में परोस रहे है। मन की बात अर्थात व्यक्तिगत विचार भी अब दूसरों तक आसानी से पहुंच रहा है। बात चाहे देश की हो, समाज की या किसी वर्ग विशेष की, आम तो पहले भी होता रहा है किन्तु अभी जिस तरह से सोशल मीडिया में बेबाकी से बात को रखा जा रहा है वह आग में घी का काम कर रहा है। देश की धार्मिक सद्भावना और आंतरिक सुरक्षा को तार-तार करते धारदार जुबान से समाज का युवा वर्ग दिशाहिन हो रहा है। हर कोई भटकाव और भड़काऊ टीका-टिप्पणी करने में लगे हैं। 
बहस और विवादों में रहना युवाओं का फैशन होता जा रहा है। किसी ने कुछ कह दिया जो तो बिना विचारे ही उस पर विवाद खड़ा करना लोग जरूरी समझने लगे है, वर्ना शायद उनको लोग सामाजिक व्यक्ति नहीं समझेंगे। अब तो समाज में रहना है तो सामाजिक बातों से खुद को जोड़े रखना युवा अपनी जिम्मेदारी समझने लगे है। बात उनकी मतलब की नहीं है तो भी बोलेंगे, बोलने की आजादी जो मिली है। बिना किसी मर्यादा के लोग अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देकर बेबुनियाद दलील देने से नहीं चुकते है। 
वाट्सअप, फेसबुक ट्वीटर आदि जैसे सोशल मीडिया में लोग रोजाना नया-नया प्रपंच रच कर न जाने क्या दिखाने की कोशश कर रहे है वे खुद नहीं जानते है। कभी-कभी तो लगता है कि लोग सुर्खियों में रहने के लिए ऐसा करते है। कोई कहता है ''आजादी-आजादी, लेके रहेंगें आजादी'' अब इस बात पर महीनों तक बहस चली और अब भी जारी है। अब ''मैं भारत माता की जय नहीं बोलुंगा" कथन पर बयानबाजी का दौर चल रहा है। इस विषय पर टिप्पणी करने वालों को रोकना या उनकी टिप्पणी पर कुछ कहना भी उक्त कथन कहने वालों का पक्षधर हो जायेगा शायद। इतना ही नहीं उस विषय पर आलेख लिखने वाले स्वतंत्र लेखकों और पत्रकारों पर भी उंगली उठ जायेगी। किसी का नाम लेकर टिप्पणी करना अब लेखकों पर ही भारी पड़ रहा है। बात-बात पर बात इतना आगे बढ़ जा रहा है कि लोग लेखकों के दफ्तरों और कॉलर तक पहुंच जा रहे है।
देश के माननीय नेता जी हमेशा कहते है कि- ये देश युवाओं का है, नव जवान साथी हमारे देश की ताकत है। लगता है युवा वर्ग पर उनकी बातों का खासा असर हुआ है वे अब स्वयं को देश की आन-बान-शान समझने लगे है। उनमें जोश और जस्बा यूं ही बरकरार रहे तो वाकई भारत को शक्तिशाली देश बनने से कोई नहीं रोक सकता है। बशर्ते युवा अपनी उर्जा को बेबाकी में बेकार न करे बल्कि साकारात्मक दिशा में लगाये तो देश के लिए बेहतर होगा। लोगों में खास कर युवा वर्ग में देश के लिए कुछ करने के जुनून को सही दिशा देने की जरूरत है। उनकी उर्जा को देश के विकास में किस तरह भागीदार बनाये जाये इस बात पर बुद्धजीवियों को राय
देनी चाहिए। किसी ने कहा कि ये देश युवाओं का है तो किस संबंध में उन्होने उक्त बातें कही इस विषय पर मंथन करे। ये देश हमारा है इस बात का कुछ और ही मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए।
प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को ही सर्वोपरि भी ना समझे। सभी को अपनी बात रखने का अवसर मिलना चाहिए। खास कर तब जब कोई व्यक्ति अथवा समुह धर्म और संप्रदाय विशेष की बात करता है, या किसी के निजी आचरण को देश और धर्म से जोड़कर देखा जाता है। जब आपसी बहस का दौर शुरू होता है उस वक्त समझौता और बीच का रास्ता निकालने अथवा उक्त विषय पर स्वतंत्र विचार रखने वालों पर भी पक्ष और विपक्ष का ठप्पा लग जाता है केवल इस आधार पर कि लेखक या विचारक किस संप्रदाय से तालुक रखता है। आलेख भले ही किसी के पक्ष में न हो फिर भी लेखक की जाति, लेख का आधार हो जाता है। कुछ ही असंप्रदायिक लेखक, कलाकार, साहित्यकार, राजनेता इन विषयों पर बेबाकी करते है जो उनका निजी विचार होता है और बेबाक बोल पर बवाल को अपना अधिकार समझना अनुचित है। देश को धर्मों और संप्रदाय में बांटकर आंतरिक कलह का कारण न बने तो बेहतर होगा। 

- जयंत साहू
डूण्डा, रायपुर छ.ग.
JAYANT SAHU
RAIPUR CHHATTISGARH
9826753304

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